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३०९ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान आराधना करो निज ज्ञायक प्रभु की दो स्वभाव पर दृष्टि। वस्तु स्वरूप निष्ठ होते ही होगी अनुभव रस की वृष्टि॥
(१०) शास्त्राद् गुरोः सधर्मादेर्ज्ञानमुत्पाद्य चात्मनः ।
तस्यावलंबनं कृत्वा तिष्ठ मुंचान्यसंगतिम् ||१०॥ अर्थ- शास्त्र सदगुरु और साधर्मी भाइयों से अपनी आत्मा का वास्तविक स्वरूप पहचान कर उसी (आत्मा) का अवलम्बन कर। उसी के स्वरूप का मनन ध्यान और चिंतवन कर पर पदार्थो का संसर्ग करना छोड़ दे। उन्हें अपना मन मान । १०. ॐ ह्रीं परपदार्थसंसर्गरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
अलेपस्वरूपोऽहम् । शास्त्र सद्गुरु तथा साधर्मी सभी से ज्ञान ले । आत्मा को जान उसका आश्रय कर भान ले | छोड़ दे पर पदार्थो का आज से संसर्ग सब । मनन चिन्तन ध्यान निज चिद्रूप का ही सतत अब || शुद्ध निज चिद्रूप चिन्तन ही जगत में सार है ।
राज्य धन परिवार आदिक सभी तो निस्सार है ||१०॥ ॐ ह्रीं पंचदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(११) अवश्यं च परद्रव्यं नश्यत्येव न संशयः ।
तद्विनाशे विधातव्यो न शोको धीमता क्वचित् ॥११॥ अर्थ- जो पर द्रव्य है, उसका नाश अवश्य होता है। कोई भी उसके नाश को नहीं रोक सकता; इसलिये जो पुरुष बुद्धिमान है। स्वद्रव्य और परद्रव्य के स्वरूप के भले प्रकार जानकार है। उन्हे चाहिये कि वे उनके नाश होने पर कभी किसी प्रकार का शोक न करें। ११. ॐ ह्रीं नश्वरपरपदार्थविषयकशोकरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
अविनश्वरज्ञानस्परूपोऽहम् ।
हरिगीता