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३०८ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी पंचदशम अध्याय पूजन मेरी वैभाविक परिणति ही भव भव तक दुखदायी है | मेरी स्वाभाविक परिणति ही सदा सदा सुखदायी है |
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८. ॐ ह्रीं निराकुलशुद्धचिद्रूपाय नमः । .
- सच्चित्सौख्यस्वरूपोऽहम ।
हरिगीता स्वपर को रंजायमान बनाने का भाव है । विभावी परिणाम है यह नहीं आत्म स्वभाव है | शुद्ध निज चिद्रूप चिन्तन ही जगत में सार है ।
राज्य धन परिवार आदिक सभी तो निस्सार है ||८|| ॐ ह्रीं पंचदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
संयोगविप्रयोगौ च रागद्वेषो सुखासुखे ।
तद्भवे ऽत्रभवे नित्यं दृश्येते तद्भव त्यज ॥९॥ अर्थ- क्यों तो यह भव और क्या परभव? दोनों भवों से जीव को संयोग वियोग राग द्वेष और सुख दुख का समाना करना पड़ता है; इसलिये हे आत्मन्! तू इस संसार का त्याग कर दे। ९. ॐ ह्रीं संयोगवियोगरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
विज्ञानघनानन्दोऽहम् ।
हरिगीता कहाँ यह भव कहाँ पर भव सभी में है राग द्वेष । जीव को संयोग और वियोग दुख है सतत क्लेश ॥ इसलिए हे आत्मन् संसार का तू त्याग कर । स्वपर को रंजायमान बना कर पर भाव हर ॥ शुद्ध निज चिद्रूप चिन्तन ही जगत में सार है ।
राज्य धन परिवार आदिक सभी तो निस्सार है ॥९॥ ॐ ह्रीं पंचदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।