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________________ ३०७ ..श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान वीतराग विज्ञान स्वभावी फिर भी दुख से दहक रहा । अशुचि आश्रव के भावों से रुचि करके ये बहक रहा ॥ शुद्ध निज चिद्रूप चिन्तन ही जगत में सार है । राज्य धन परिवार आदिक सभी तो निस्सार है ॥६॥ ॐ ह्रीं पंचदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । लोकस्य चात्मनो यत्नं रंजनाय करोति यत् । तच्चेन्निराकुलत्वाय तर्हि दूरे न तत्पदम् ॥७॥ अर्थ- इस प्रकार यह जीव अपने और लोक के रंजाय मान करने के लिये प्रतिदिन उपाय करता रहता है उसी प्रकार यदि निराकुलतामय मोक्षसुख की प्राप्ति के लिये उपाय करे तो वह मोक्ष स्थान जरा भी उसके लिये दूर न रहे बहुत जल्दी प्राप्त हो जाय । ७. ॐ ह्रीं स्वपररअनोपायरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निराकुलानन्दस्वरूपोऽहम् । लोक रंजन के लिए ही कर रहा प्रतिक्षण उपाय | निराकुल सुख मोक्ष पाने का नहीं करता उपाय ॥ अगर थोड़ा भी करे तू ध्यान से सम्यक् उपाय । प्राप्त होगा मोक्ष तुझको शाश्वत शिव सौख्य दाय || शुद्ध निज चिद्रूप चिन्तन ही जगत में सार है । राज्य धन परिवार आदिक सभी तो निस्सार है ॥७॥ ॐ ह्रीं पंचदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । रंजने परिणामः स्यात् विभावो हि चिदात्मनि । निराकुले स्वभावः स्यात् तं विना नास्ति सत्सुखम् ॥ अर्थ- अपने और पर के रंजायमान करने वाले चिदात्मा में जो जीव का परिणाम लगाता है, वह तो विभाव परिणाम गिना जाता है। और निराकुल शुद्धचिद्रूप में जो लगता है, वह स्वभाव परिणाम कहा जाता है। तथा इस परिणाम से ही सच्चे सुख की प्राप्ति होती है। उसके बिना कदापि सच्चा सुख नहीं मिल सकता ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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