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२९२ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी चतुर्दशम अध्याय पूजन जब तक पर का आलंबन है कर्मो का रुकता न प्रवाह। जब निज का अवलंबन होता तब आता है शुद्ध स्वभाव॥ जानता है वह व्याधियां. तो देह में होती । मैं तो हूँ भिन्न देह से नहीं मुझमें होती ॥ शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन ही श्रेष्ठ है प्रतिक्षण ।
शुद्ध चिद्रूप से कटते हैं कर्म के बंधन ॥१४॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनाागमाय अर्घ्य नि. ।
शुष्ध ।
(१५)
बुभुक्षया च शीतेन वातेन च विपासया ।
आतपेन भवेन्नार्तो निजचिद्रूपचिंतनात् ||१५|| अर्थ- आत्मिक शुद्धचिद्रूप के चितवन से मनुष्य को भूख ठंड पवन प्यास और आताप की भी बाधा नहीं होती। भूख आदि की बाधा होने पर भी वह आनन्द ही मानता है । १५. ॐ ह्रीं शीतवातातपपिपासादिपीडाररहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
आनन्दजलामृतस्वरूपोऽहम् । । ग्रीष्म हो ठण्ड पवन प्यास अरु आताप भी हो । शुद्ध चिद्रूप के चिन्तन में नहीं बाधा हो ॥ वह तो आनंद मानता है आत्म चिन्तन में । वह तो हैं मग्न सतत अपने ही आनंदधन में || . शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन ही श्रेष्ठ है प्रतिक्षण ।
शुद्ध चिद्रूप से कटते हैं कर्म के बंधन ॥१५॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अयं नि. ।
(१६) हर्षो नजायते स्तुत्या विषादो न स्वनिंदया ।
स्तकीयं शुद्धचिद्पमन्वहं स्मरतोऽगिनः ||१६|| अर्थ- जो प्रतिदिन शुद्धचिद्रूप का स्मरण ध्यान करता है। उसे दूसरे मनुष्यों से अपनी स्तुति सुनकर हर्ष नहीं होता और निंदा सुनकर किसी प्रकार का विषाद नहीं होत। निंदा स्तुति दोनों दसा में वह मध्यास्थ रूप से रहता है।
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