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२९३ . श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान स्वपर प्रकाश का महिमा धारी ज्ञान जानता लोकालोक।
निर्मल हो जाता है चेतन निज स्वभाव निधिको अवलोक|| | १६. ॐ ह्रीं स्तुतिनिन्दाहर्षविषादादिवकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः |
समतारत्नस्वरूपोऽहम् ।। शुद्ध चिद्रूप नित्य जो भी स्मरण करता । निन्दा संस्तुति में हर्ष या विषाद ना करता ॥ वह तो मध्यस्थ ही रहता है साम्यभावी बन । शुद्ध चिद्रूप ध्यान में ही बिताता जीवन ॥ शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन ही श्रेष्ठ है प्रतिक्षण ।
शुद्ध चिद्रूप से कटते हैं कर्म के बंधन ॥१६॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१७) रागद्वेषो न जायेते परद्रव्ये गतागते ।
शुभाशुभेऽगिनः शुद्धचिदूपासक्तचेतसः ॥१७॥ अर्थ- जिस मनुष्य का चित्त शुद्धचिदप में आसक्त है। वह स्त्री पुत्र आदि पर द्रव्य के चले जाने पर द्वेष नहीं करता। और उनकी प्राप्ति में अनुरक्त नहीं होता। तथा अच्छी बुरी बातों के प्राप्त हो जाने पर भी उसे किसी प्रकार का राग द्वेष नहीं होता । १७. ॐ ह्रीं गतागतपरद्रव्यविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
गमनागमनरहितोऽहम् । जो भी चिद्रूप शुद्ध में सदा रहता आसक्त । जाएं पर द्रव्य द्वेष से भी न होता संयुक्त ॥ नहीं अनुरक्त होता कभी उनके आने पर । द्वेष करता ही नहीं उनके चले जाने पर || शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन ही श्रेष्ठ है प्रतिक्षण ।
शुद्ध चिद्रूप से कटते हैं कर्म के बंधन ॥१७॥ | ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनाागमाय अर्घ्य नि. ।