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२९१ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
अनंत धर्मो का अधिपति हूँ शक्ति अनंतों से संपन्न । शुद्ध ज्ञान अवतरण प्राप्त कर करूं मोक्ष सुख को उत्पन्न ॥
(१३) स्मरन् स्वशुद्धचिद्रूपं कुर्यात्कार्यशतान्यपि । तथापि न हि वध्येत धीमानशुभकर्मणा ॥१३॥
अर्थ- आत्मिक शश्धचिद्रूप का स्मरण करता हुआ बुद्धिमान पुरुष यदि सैकड़ों भी अन्य अन्य कार्य करें। तथापि उसकी आत्मा के साथ किसी प्रकार के अशुभ कर्म का बंध नहीं होता ।
१३. ॐ ह्रीं शतकार्यविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
अविकारज्ञानस्वरूपोऽहम् ।
शुद्ध चिद्रूप का स्मरण जो भी करता है अन्य कार्यो को भी करता हुआ नबंधता है |
शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन ही श्रेष्ठ है प्रतिक्षण । शुद्ध चिद्रूप से कटते हैं कर्म के बंधन ॥१३॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
(१४) रोगेण पीड़ितो देही यष्टिमुष्टयादिताडितः ।
वद्धो रज्ज्वादिभिर्दुःखी न चिद्रूपं निजं स्मरन् ॥१४॥
अर्थ- जो मनुष्य शुद्धचिद्रूप का स्मरण करने वाला है। चाहे वह कैसे भी रोग पीड़ित क्यों न हो। लाठी मुक्कों से ताड़ित और रस्सी आदि से भी क्यों न बंधा हुआ हो। उसे जरा भी क्लेश नहीं होता । अर्थात् वह यह जानकर कि ये सारी व्याधियां शरीर में होती हैं, मेरे शुद्धचिद्रूप में नहीं और शरीर मुझसे सर्वथा भिन्न है रंच मात्रा भी दुःख का अनुभव नहीं करता ।
१४. ॐ ह्रीं यष्टिमुष्ट्यादिताडनरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
नीरोगस्वरूपोऽहम् ।
शुद्ध चिद्रूप का ही स्मरण जिसे होता । बाहय व्याधि में उसे फिर भी क्लेश ना होता ॥