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२८७ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान शुद्ध अद्वैत भावना का फल कल्याण मयी । यही है शान्ति का समुद्र है निर्वाण जयी || निर्जन स्थान निरुपद्रवी में ही रहता । सभी चिन्ताएं त्याग शुभाचरण ही करता ॥ ध्यान पिंडस्थ अरु पदस्थका ही अवलंबन । समता मय भव्य सौन्दर्य युक्त निश्चल मन ॥ शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन ही श्रेष्ठ है प्रतिक्षण ।
शुद्ध चिद्रूप से कटते हैं कर्म के बंधन ॥६॥ | ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनाागमाय अर्घ्य नि. ।।
(७) पापानि प्रलयं यांति तेषामभ्युदयप्रदः ।
धर्मो विवर्द्धते मुक्तिप्रदो धर्मश्च जायते ॥७॥ | ७. ॐ ह्रीं पापप्रलयविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निष्पापस्वरूपोऽहम् ।
। ध्यान रूपस्थ फिर हो रूपातीत हितकारी । इनके पश्चात् शुक्ल ध्यान ही शिव सुखकारी ॥ जो भी चिद्रूप शुद्ध का ही स्मरण करते । पाप होते हैं नष्ट धर्म वृद्धि वे करते ॥ उन्हें ही मोक्षमय कल्याण प्राप्त होता है । उनके अंतर में परम सौख्य प्राप्त होता है | शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन ही श्रेष्ठ है प्रतिक्षण ।
शुद्ध चिद्रूप से कटते हैं कर्म के बंधन ॥७॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । ।
वार्वाताग्न्यमृतोषवजगरुडज्ञानौषधेभारिणा सूर्येण प्रियभाषितेन च यथा यांति क्षणेन क्षयम् ।