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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी चतुर्दशम अध्याय पूजन द्वैतों से बचकर ही रहना है कर्त्तव्य श्रावकों का । दुष्पापों की छाया से वचना मन्तव्य श्रावकों का ॥
अग्न्यब्दागविषं मलागफणिनोऽज्ञानं गदेभव्रजा: रात्रि र्वैरमिहावनावघचयश्चिद्रूपसंचिंतया ॥८॥
अर्थ- जिस प्रकार जल अग्नि का क्षय करता है। पवन मेघ का, अग्नि वृक्ष का, अमृत विष का, खार मैल का, वज्र पर्वत का, गरुड सर्प का, ज्ञान अज्ञान का औषध रोग का सिंह हाथियों का, सूर्य रात्रि का और प्रिय भाषण बैर का नाश करता है। उसी प्रकार शुद्धचिद्रूप के चिंतवन करने से समस्त पापों का नाश होता है ।
८. ॐ ह्रीं वैरनाशकप्रियभाषणविकलल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । ज्ञानजलोऽहम् ।
जैसे जल अग्नि क्षय करता है पवन मेघों का । अग्नि तरु नाश अमृत विष का क्षार मैलों का ॥ वज्रं पर्वत का गरुड़ सर्प का औषधि रोगों का । सिंह हाथी का सूर्य रात्रि का वच बैरों का ॥ शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन ही श्रेष्ठ है प्रतिक्षण ।
शुद्ध चिद्रूप से कटते हैं कर्म के बंधन ॥८॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनाागमाय अर्घ्यं नि. 1
(९)
वर्द्धन्ते च यथा मेघात्पूर्व जाता महीरुहाः ।
तथा चिद्रूपसदध्यानात् धर्मश्चाभ्युदयप्रदः ॥ ९ ॥
अर्थ- जिस प्रकार पहिले से ऊगे हुए वृक्ष मेघ के जल से वृद्धि को प्राप्त होते हैं। उसी प्रकार शुद्धचिद्रूप के ध्यान से धर्म भी वृद्धि को प्राप्त होता है। और नाना प्रकार के कल्याणों को प्रदान करता है ।
९. ॐ ह्रीं अभ्युदयप्रदधर्मविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
अक्षयनिजधर्मरूपोऽहम् ।
पूर्व से उगा वृक्ष मेघ जल से बृद्धिंगत । त्यों ही चिद्रूप ध्यान से हो धर्म बृद्धिंगत ॥