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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी चतुर्दशम अध्याय पूजन द्वैत जब तक है ह्रदय में अशान्ति पाओगे । जहाँ भी जाओगे तुम वहाँ भ्रान्ति पाओगे ||
४. ॐ ह्रीं संयमादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । विरागरत्नोहम् ।
मन वचन काय से वैराग्य प्राप्त कर लो तुम । सदगुरु तत्त्व वेत्ता से ज्ञान कर लो तुम ॥ शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन ही श्रेष्ठ है प्रतिक्षण 1 शुद्ध चिद्रूप से कटते हैं कर्म के बंधन ॥ ४ ॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनाागमाय अर्घ्य नि. ।
(५) मन अधीत्य सर्वशास्त्राणि निर्जने निरुपद्रवे ।
स्थाने स्थित्वा विमुच्यान्यचिंतां धृत्वा शुभासनम् ॥५॥
५. ॐ ह्रीं शुभासनादिधारणविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
ज्ञानासनस्वरूपोऽहम् ।
बाह्य अरु अंतरंग सर्व परिग्रह तज लो । संयम स्वीकार करो शास्त्र अध्ययन कर लो ॥ शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन ही श्रेष्ठ है प्रतिक्षण । शुद्ध चिद्रूप से कटते हैं कर्म के बंधन ॥५॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनाागमाय अर्घ्यं नि. ।
(६)
पदस्थादिकमभ्यस्य कृत्वा साम्यावलंबनम् ।
मानसं निश्चलीकृत्य स्वं चिद्रूपं स्मरन्ति ये ॥६॥
६. ॐ ह्रीं पदस्थादिकध्याानावलम्बनरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
निरावलम्बनसमतारूपोऽहम् ।