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२८५ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
दोनों परिणति "ह तुम्हारे ही सामने चेतन ।
मेरी मानो तो लो स्वभाव की परिणति चेतन ॥
(३)
चित्तं निधाय चिद्रूपे कुर्याद् वागंगचेष्टिनम् । सुधीर्निरन्तरं कुंभे यथा पानीयहारिणी ॥३॥
अर्थ- जो मनुष्य विद्वान हैं। संसार के ताप से रहित होना चाहते हैं। उन्हें चाहिये कि वे घड़े में पनिहारी के समान शुद्धचिद्रूप में अपना चित्तस्थिर कर वचन और शरीर की चेष्टा करें।
३. ॐ ह्रीं वागङ्गचेष्टारहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
निष्कायचिद्रूपोऽहम् ।
जो भी संसार ताप से रहित होना चाहें । शुद्ध चिद्रूप में थिर होके उसे ही ध्यायें ॥ शुद्ध चिद्रूप से संसार ताप क्षय होता । शुद्ध चिद्रूप से संसार दुख विजय होता ॥ शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन ही श्रेष्ठ है प्रतिक्षण । शुद्ध चिद्रूप से कटते हैं कर्म के बंधन ॥३॥
ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(४)
वैराग्यं त्रिविधं प्राप्य संगं हित्वा द्विधा ततः ।
तत्त्वविद्गुरुमाश्रित्य ततः स्वीकृत्य संयमम् ॥४॥
अर्थ- जो महानुभाव मन से वचन से और काय से वैराग्य को प्राप्त होकर बाह्य आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों को छोड़कर तत्ववेत्ता गुरु का आश्रय लेकर और संयम को स्वीकार कर समस्त शास्त्रों के अध्ययपूर्वक निर्जन निरुपद्रव स्थान में रहते हैं। और वहां समस्त प्रकार की परित्याग शुभ आसन का धारण पदस्थ पिंडस्थ आदि ध्यानों का अवलंबन समत का आश्रय और मन का निश्चलपना धारण कर शुद्धचिद्रूप का स्मरण ध्यान करे हैं। उनके समस्त पाप जड़ से नष्ट हो जाते हैं। नाना प्रकार के कल्याणों को करने वाले धर्म की वृद्धि होती है और उससे उन्हें मोक्ष मिलता है । ४-५-६