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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी चतुर्दशम अध्याय पूजन कौन सी चाहिए परिणति बताओ तुम चेतन । स्वभाव वाली या विभाव की कहो चेतन ॥
शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन ही श्रेष्ठ है प्रतिक्षण । शुद्ध चिद्रूप से कटते हैं कर्म के बंधन ॥१॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (२)
कुर्वन् यात्रार्चनाद्यं खजयजपतपोऽव्यापनं साधुसेवांदानौघान्योपकार यमिनियमधरा स्वापशीलं दधानः । उद्भीभावं च मौनं व्रतसमितिततिं पालयन् संयमौघंचिद्रूपध्यानरक्तो भवति च शिवभाग् नापर: स्वर्गभाक् च ॥२॥ अर्थ जो मनुष्य तीर्थयात्रा भगवान की पूजन इन्द्रियों का जप, जप तप अध्यापन साधुओं की सेवा, दान, अन्य, का उपकार, यम नियम, शील, भय का अभाव मौन, व्रत, और समिति का पालन एवं संयम का आवरण करता हुआ शुद्धचिद्रूप के ध्यान में रक्त है। उसे तो मोक्ष की प्राप्ति होती है। और उससे अन्य, अर्थात् जो शुद्धचिद्रूप का ध्यान न कर तीर्थयात्रा आदि का ही करने वाला है। उसे नियम से स्वर्ग की प्राप्ति होती है २. ॐ ह्रीं यात्रार्चनादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
निर्भयबोधोहम् ।
तीर्थ यात्रा तथा भगवान की पूजन जप तप । साधु सेवा सुदान अन्य का उपकार सुव्रत ॥ यम नियम शील मौन समिति गुप्ति व्रत संयम । शुद्ध चिद्रूप ध्यानलीन मुक्ति में सक्षम ॥ उसे ही मोक्ष की होती है प्राप्ति अति उत्तम । जो है चिद्रूप ध्यान रहित उसे स्वर्ग परम ॥ शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन ही श्रेष्ठ है प्रतिक्षण । शुद्ध चिद्रूप से कटते हैं कर्म के बंधन ॥२॥
ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।