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________________ २८३ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान विभावी भाव की परिणति सदा ही दुख देती । स्वभावी भाव की परिणति सदा ही सुख देती ॥ अर्ध्यावलि चुतर्दशम अध्याय अन्य कार्यों के करने पर भी शुद्ध चिद्रूप के स्मरण का उपदेश (9) नीहाराहारपानं खमदनविजयं स्वापमौनासनं च यानं शीलं तपांसि व्रतमपि कलयन्नागमं संयमं च । दानं गानं जिनानां नुतिनतिजपनं मंदिरं चाभिषेकं, यात्रार्चे मूर्तिमेवं कलयति सुमतिः शुद्धचिद्रूपकोऽहम् ||१|| अर्थ- बुद्धिमान पुरुष जिस प्रकार नीहार खाना, पीना, इंद्रिय और काम का विजय सोना मौन आसन गमन शील तप व्रत आगम संयम दान गान भगवान की स्तुति प्रणाम जप मंदिर अभिषेक तीर्थयात्रा पूजन और प्रतिमाओं के निर्माण आदि करने को आवश्यक कार्य समझते हैं, उसी प्रकार मैं शुद्धचिद्रूप हूँ, ऐसा समझने को भी आवश्यक कार्य मानते हैं । १. ॐ ह्रीं नीहाराहारपानादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । अनशनचित्स्वरूपोऽहम् । मज़ल शुद्ध चिद्रूप का ही ध्यान तो सर्वोत्तम है । शुद्ध चिद्रूप का ही ध्यान तो परमोत्तम है ॥ चाहे आहार हो नीहार हो जगना सोना । मौन आसन हो मदन काम का विजय होना ॥ शील तप दान युत आगम का ज्ञान अरु संयम । तीर्थ यात्रा हो या अभिषेक अथवा जिन पूजन ॥ सभी कार्यो के समय आत्मा को ही ध्याओ । शुद्ध चिद्रूप हूं ऐसा ही ध्यान उर लाओ ॥
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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