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________________ २७६ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी त्रयोदशम अध्याय पूजन ज्ञान जागेगा तो अज्ञान नाश होगा ही । मोह भागेगा तो निर्मल प्रकाश होगा ही ॥ (२१) . यावद्वाह्यान्तरान् संगान् न मुञ्चन्ति मुनीश्वराः । तावदायाति नो तेषां चित्स्वरूपे विशुद्धता ॥२१॥ अर्थ- जब तक मुनिगण बाह्य आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रह का सर्वथा त्याग नहीं कर देते। तब तक उनकें चिद्रूप में विशुद्धपना नहीं आ सकता । २१. ॐ ह्रीं बाह्यान्तरसङ्गरहितनिःसङ्गस्वरूपाय नमः । निष्किञ्चनस्वरूपोऽहम् । जब तक मुनिगण बाहाभ्यंतर क्षय करते न परिग्रह दुखकर । जब तक उनके स्वचिद्रूप में विशुद्धि आती ना स्वरूप में। परम शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति श्रम। त्रिभुवन में ये ही सर्वोत्तम॥२१॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अयं नि । (२२) विशुद्धिनावमेवात्र अयंतु भवसागरे । __ मज्जन्तो निखिला भव्या बहुना भाषितेन किम् ॥२२॥ अर्थ- ग्रंथकार कहते हैं कि इस विषय में विशेष कहने से क्या प्रयोजन? प्रिय भव्यों! अनादि काल से आप लोग इस संसार रूपी सागर में गोता खा रहे हैं। अब आप इस विशुद्ध रूपी नौका आश्रय लेकर संसार से पार होने के लिये पूर्ण उद्याम कीजिये । २२. ॐ ह्रीं ज्ञानपोतस्वरूपाय नमः । . चैतन्यनावस्वरूपोऽहम् । चौपायी अधिक कथन से नहीं प्रयोजन भव्यो करो स्वयं का चिन्तन। "... काल अनंत दुखों में बीता फिर भी भव सागर ना रीता॥ अब विशुद्धि रूपी नौकालों भव समुद्र हर शाश्वत सुख लो। .. परम शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति श्रम। त्रिभुवन में ये ही सर्वोत्तम॥२२॥ ॐ ह्रीं त्रयोदश: अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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