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________________ २७४ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी त्रयोदशम अध्याय पूजन मोह मिथ्यात्व की मदिरा का तुम सेवन छोड़ो । अपनी निज आत्मा को ज्ञान भाव से जोड़ो ॥ अर्थ- जो मनुष्य विशुद्धता के भक्त हैं। अपनी आत्मा को विशुद्ध बनाना चाहते हैं। वे उसकी सिद्धि के लिये पर्वत की गुफाओं में निवास करते हैं। तथा अनुपम राज्य इन्द्रिय सुख और संपत्ति का सर्वथा त्याग कर देते हैं। राज्य आदि की ओर जरा भी चित्त को भटकने नहीं देते । १७. ॐ ह्रीं राज्यसुखधनादिरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । ज्ञानगिरीस्वरूपोऽहम् । जो हैं प्रेमी शुद्ध भाव के साथी बनते हैं स्वभाव के । .... वन पर्वत सरिता तट रहते सर्व परिग्रह वे तज देते ॥ राज्य आदि इन्द्रिय सुख तजते निज को छोड़ न कहीं भटकते। परम शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति श्रम। त्रिभुवन में ये ही सर्वोत्तम॥१७१ ॐ ह्रीं त्रयोदशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । . (१८) .. विशुद्धेश्चित्स्वरूपे स्यात् स्थितिस्तस्या विशुद्धता । तयोरन्योन्यहेतुत्वमनुभूय प्रतीयताम् ॥१८॥ अर्थ- विशुद्ध होने से शुद्धचिद्रूप में स्थिति होती है। और विशुद्धचिद्रूप में निश्चय रूप से स्थिति करने से विशुद्ध होती है; इसलिये इन दोनों को आपस में एक दूसरे का कारण जानकर, इनका वास्तविक स्वरूप जान लेना चाहिये । १८. ॐ ह्रीं चिद्रूपस्थितिकारणविशुद्धताविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । शुद्धचैतन्यधामस्वरूपोऽहम् । चौपायी जब होती विशुद्धि उर निश्चित तब चिद्रूप शुद्ध में सुस्थित। जब चिद्रूप शुद्ध हो सुस्थित तब विशुद्धि होती है निश्चित॥ एक दूसरे का कारण यह इस स्वरूप को जानो निस्पृह। परम शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति श्रम। त्रिभुवन में ये ही सर्वोत्तम॥१८॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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