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________________ २७३ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान जीव का ज्ञान से संबंध जब हो जाता है । मोह मिथ्यात्व भाव पल में ही खो जाता है ॥ यह विशुद्धि चिद्रूप ध्यान में उत्तम कारण है स्वध्यान में । संक्लेश है ध्यान विघातक अरु विशुद्धि निज उत्तम साधक ॥ जब तक संक्लेश रहता है तब तक ध्यान नहीं होता है। परम शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति श्रम । त्रिभुवन में ये ही सर्वोत्तम ॥१५॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१६) अमृतं च विशुद्धिः स्यान्नान्यल्लोकप्रभाषितम् । अतच्यंतसेवने कष्टमन्यस्यास्य परं सुखम् ॥१६॥ अर्थ- संसार में लोग अमृत जिसको कहकर पुकारते हैं- अथवा जिस किसी पदार्थ को लोग अमृत बतलाते हैं। वह पदार्थ वास्तव में अमृत नहीं है। वास्तविक अमृत को विशुधि ही है। क्योंकि लोककथित अमृत के अधिकर सेवन करने से तो कष्ट भोगना पड़ता है। और विशुद्धि रूपी अमृत के अधिक सेवन करने पर भी अनुपम सुख ही मिलता है। किसी प्रकार का भी कष्ट नहीं भोगना पड़ता, इसलिये जिससे सब अवस्थाओं में सुख मिले, वही सच्चा अमृत है । १६. ॐ ह्रीं पेयरुपामृतविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । ज्ञानपीयूषस्वरूपोऽहम् । चौपायी जग जिसको अमृत कहता है नाम मात्र का वह होता है। सच्चा अमृत शुद्ध भाव है। दुखमय अमृत तो विभाव है | लोक कथित अमृत विषपायी सदा सेवने पर दुखदायी । है चिद्रूप शुद्ध ही अमृत महामोक्ष सुख दाता शाश्वत ॥ परम शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति श्रम | त्रिभुवन में ये ही सर्वोत्तम ॥१६॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (१७) विशुद्धिसेवनासक्ता वसंति गिरिगव्हरे । विमुच्यानुपमं राज्यं स्वसुखानि धनानि च ॥१७॥
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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