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२७२ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी त्रयोदशम अध्याय पूजन जिसने निज आत्मा को आज तक न जाना है । उसने ही बार बार घोर दुक्ख छाना है ॥ उस मनुष्य को वहु सुख मिलता लोक और परलोक सुधरता।
परम शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति श्रम। त्रिभुवन में ये ही सर्वोत्तम॥१३॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१४) संक्लेशे सकर्मणां बंधोऽशुभानां दुःखदायिनाम् ।
विशुद्धौ मोचनं तेषां बंधो वा शुभकर्मणाम् ॥१४॥ अर्थ- क्योंकि संक्लेश के होने से अत्यन्त दुखदायी अशुभ कर्मो का आत्मा के साथ संबंध होता है। और विशुद्धता की प्राप्ति से इन अशुभ कर्मो का सम्बन्ध छूटता है तथा शुभ कर्मो का सम्बन्ध होता है। १४. ॐ ह्रीं दुःखदायकाशुभकर्मबन्धकारणसंक्लेशरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः।
सदानन्दधामस्वरूपोऽहम् ।
चौपायी यह संक्लेश महादुखदायी अशुभ कर्म आत्मा संग भाई। जब विशुद्धता की हो प्राप्ति अशुभ कर्म की होती नास्ति।
परम शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति श्रम। त्रिभुवन में ये ही सर्वोत्तम॥१४॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१५) विशुद्धिः शुद्धचिद्रूपसद्ध्याने मुख्यकारणम् ।
संक्लेशस्तद्विघाताय जिनेनेदं निरूपितम् ॥१५॥ अर्थ- यह विशुद्धि शुद्धचिद्रूप के ध्यान में मुख्य कारण है। इसी से शुद्धचिद्रूप के द्यान की प्राप्ति होती है। और संक्लेश शुद्धचिद्रूप के ध्यान का विघातक है। जब तक आत्मा में किसी प्रकार का संक्लेश रहता है। तब तक शुद्धचिद्रूप का ध्यान कदापि नहीं हो सकता । १५. ॐ ह्रीं चिद्रूपध्यानविघातकसंक्लेशरंहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
अवध्यचिदूपोऽहम् ।