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________________ २६९ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान विभावों की अंधेरी में ढूंढते हो रोशनी । रोशनी हो ज्ञान की तो विश्व भर में रोशनी ॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (८) पठने गमने संगे चेतनेऽचेतनेऽपि च । किंचित्कार्यकृतौ पुंसा चिन्ता हेया विशुद्धये |८| अर्थ-जो महानुभाव विशुद्धता का आकांक्षी है। अपनी आत्मा को निष्कलंक बनाना चाहता है। उसे चाहिये कि यह पढ़ने गमन करने, चेतन अचेतन, दोनों प्रकार के परिग्रह के सम्बन्ध में और किसी अन्य कार्य के करने में किसी प्रकार की चिन्ता न करे अर्थात् अन्य पदार्थो की चिन्ता करने से आत्मा विशुद्ध नहीं बन सकती । ८. ॐ ह्रीं पठनगमनादिचिन्तारहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निश्चिन्तोऽहम् ।। जो विशुद्धता की आकांक्षा निष्कंलक होने की कांक्षा । पठन गमन चेतन व अचेतन धरे न चिन्ता अणुभर भी मन॥ परम शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति श्रम। त्रिभुवन में ये ही सर्वोत्तम||८|| ॐ ह्रीं त्रयोदशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । शुद्धचिद्रूपकस्यांशो द्वादशांगश्रुतार्णवः । शुद्धचिद्रूपके लब्धे तेन किं मे प्रयोजनम् ॥१॥ अर्थ- आचारांग सूत्रकृतांग आदि द्वादशांगरूपी समुद्र शुद्धचिद्रूप का अंश है, इसलिये यहि शुद्धचिद्रूप प्राप्त हो गया है, तो मुझे द्वादशांग से क्या प्रयोजन? वह तो प्राप्त हो ही गया । ९. ॐ ह्रीं द्वादशाङ्गश्रुतार्णवविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । शाश्वतज्ञानार्णवस्वरूपोऽहम् । द्वादशांरः रूपी श्रुत सागर है चिद्रूप शुद्ध अंशभर । हो चिद्रूप शुद्ध अन्तर्मन द्वादशांग से नहीं प्रयोजन || परम शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति श्रम। त्रिभुवन में ये ही सर्वोत्तम॥९॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. IAL
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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