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२६८ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी त्रयोदशम अध्याय पूजन विषय भोगों में रहे हो आत्मा को भूलकर । भवोदधि में ही बहे हो राग पर में झूल कर ॥ ऐसे वचन सदा ही कहना है विशुद्धि का उत्तम गहना । यह विशुद्धता उर में ध्याता ऐसा सुख नित अनुभव पाता। शुद्ध बुद्ध चैतन्य स्वरूपी ज्ञाता दृष्टा आनन्द रूपी ||
परम शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति श्रम। त्रिभुवन में ये ही सर्वोत्तम|॥६॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(७) राज्ञी ज्ञातेश्च दस्योर्खलनजलरिपोरीतितो मृत्युरोगात् । दोषोदभूतेरकीर्तेः सततमतिभयं रैनृगोमंदिरस्य ॥ चिंता तन्नाशशोको भवति च गृहिणां तेनतेषां विशुद्ध
चिद्रूपध्यानरत्नं श्रुतजलधिभवं प्रायशो दुर्लभं स्यात् ||७|| अर्थ- संसारी जीवों को राजा, जाति, चोर अग्नि, डल, बैरी, अतिवृष्टिी, अनावृष्टि, आद ईति मृत्यु रोग, दोष, और अकीर्ति से सदा भय बना रहता है। धन कुटुम्बी मनुष्य, गाय और महल मकान की चिन्तायें लगी रहती है। एवं उनके नाश से सोक होता रहता है; इसलिये उन्हें शास्त्ररूपी अगाध समुद्र से उत्नप्न शुद्ध चिद्रूप के ध्यान रतन की प्राप्ति होना नितान्त दुर्लभ है। ७. ॐ ह्रीं मृत्युरोगशोकादिरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
अशोकोऽहम् ।
__ चौपायी
अनावृष्टि अतिवष्टि अग्निमय ईति भीति जल धोर दुष्ट भय। राग द्वेष मृत्यु अन्यभय जयति अकीर्ति आदिका भी भय॥ संसारी जीवों को हरता धन कुटुम्ब चिन्ता युत होता । इष्ट नाश से महादुखी है पलभर को भी नहीं सुखी है| उन्हें शास्त्र रूपी जिन अमृत दुर्लभ है चिद्रूप शाश्वत । नहीं प्राप्ति होती स्वध्यान की अरुचि सतत चिद्रूप ध्यान की । परम शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति श्रम। त्रिभुवन में ये ही सर्वोत्तम||७॥