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________________ २६७ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान अगर साता चाहिये तो मंद कीजेगा कषाय । अगर शिवसुख चाहिये तो कीजिएगा क्षय कषाय || रागादिविक्रया दृष्टवांगिनां क्षोभादि मा ब्रज | भवे तदितरं किं स्यात् स्वस्थं शिवपदं स्मर ॥५॥ अर्थ- हे आत्मन्! मनुष्यों में रागद्वेष आदि का विकार देख तुझे किसी प्रकार का क्षोन न करना चाहिए, क्योंकि संसार में सिवाय राग आदि विकार के और होना ही क्या है! इसलिये तू अतिशय विशुद्ध मोक्षमार्ग का ही स्मरण कर । ५. ॐ ह्रीं क्षोभादिदोषरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । अविकारोऽहम् । चौपायी राग द्वेष के विकार हरकर क्षोभ नहीं करना समता धर। यह जग राग द्वेष का धारी ज्ञान मार्ग है श्रेयसकारी || परम शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति श्रम। त्रिभुवन में ये ही सर्वोत्तम||५॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । । विपर्यस्तो मोहादहमिद विवेकेन रहतिः सरोगो निःस्वो वा विमतिरगुणः शक्तिविकलः । . सदादोषी निधोऽगुरुविधिरकर्मा हि वचनं । वदनांगी त्याचं भवति भुवि वैशुद्धयसुखभाक् ||६|| अर्थ- मैं मोह के कारण विपर्यस्त होकर ही अपनी को विवेकहीन रोगी निर्धन मतिहीन अगुणी शक्ति रहित दोषी निन्दनीय हीनक्रिया का करनेवाला अकर्मणय आलसी मानता हूं। इस प्रकार वचन बोलने वाला विशुद्धता के सुख का अनुभव करता है । । ६. ॐ ह्रीं मोहविपर्ययत्वरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । अनन्तवीर्यस्वरूपोहम् ।। रोगी निर्धन शक्तिहीन हूँ दोषी और विवेक हीन हूँ । अगुणी निन्दनीय आलसी अकर्मण्य हूँ मोह भ्रम वशी ॥
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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