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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी त्रयोदशम अध्याय पूजन ज्ञान पूर्ण प्रकाश हो तो मोह भ्रम तम नाश है । परम केवल ज्ञान दर्शनमयी शुद्ध प्रकाश है ॥
(१०) शुद्धचिद्रूपके लब्धे कर्त्तव्यं किंचिदस्ति न । अन्यकार्यकृतौ चिन्ता वृथा मे मोहसंभवना ॥१०॥ अर्थ- मुझे संसार में शुद्धचिद्रूप का लाभ चोगया है । इसलिये कोई कार्य मुझे करने के लिये अवशिष्ट न रहा। सब कर चुका । तथा शुद्धचिद्रूप की प्राप्त हो जाने पर अन्य कार्यो के लिये मुझे चिनता करना भी व्यर्थ है। क्योंकि यह मोह से होती है। अर्थात् मोह से उत्पन्न हुई चिन्ता से मेरा कदापि कल्याण नहीं हो सकता । १०. ॐ ह्रीं अन्यकार्यचिन्तारहितशुद्धचिद्रूपाय नमः |
निर्मोहधामस्वरूपोऽहम् । चौपायी
लाभ शुद्ध चिद्रूप हुआ तो फिर अवशिष्ट न अन्य रहा तो । जब चिद्रूप शुद्ध उर आए। फिर क्यों चिन्ता उसे सताए ॥ चिन्ता मोह जन्य होती है यह हितकर न कभी होती है।
परम शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति श्रम | त्रिभुवन में ये ही सर्वोत्तम ॥१०॥
ॐ ह्रीं त्रयोदशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
(११)
वपुषां कर्मणां कर्महेतूनां चिंतनं यदा ।
तदा क्लेशो विशुद्धिः स्याच्छुद्धचिद्रूपचिंतनम् ||११|
अर्थ- शरीर कर्म और कर्म के कारणों का चिन्तवन करना क्लेश हैं। अर्थात् उनके चिन्तवन से आत्मा में क्लेश उत्पन्न होता है। शुद्धचिद्रूप के चिन्तवन से विशुद्धि होती है ।
११. ॐ ह्रीं शरीरकर्मकारणचिंतनरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः |
क्लेशरहितनिजधुवोऽहम् ।
देह कर्म बंधन का कारण आत्म क्लेश दाता दुखदारुण । जब चिद्रूप शुद्धि होती है तब विशुद्धि उर में होती है ॥