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२५४ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी द्वादशम अध्याय पूजन
नर भव फिर तूने पाया है अब तो कर ले निज उद्धार । आत्म ज्ञान का संबल लेकर अब तो होजा भव से पार ॥
ॐ ह्रीं द्वादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
(१६)
संग् मुक्तवा जिनाकारं धृत्वा दृशं धियम् ।
यः स्मरेत् शुद्धचिद्रूपं वृत्तं तस्य किलोत्तमम् ॥१६॥
अर्थ- बाह्य आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों का सर्वथा त्याग कर, नग्नमुद्रा समता, सम्यगग्दर्शन और सम्ययग्ज्ञान का धारक होकर जो शुद्धचिद्रूप का स्मरण करता है, उसी के उत्तम चारित्र होता है ।
१६. ॐ ह्रीं जिनाकारधारणादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
समतामन्दिरस्वरूपोऽहम् ।
बाह्य अभ्यंतर परिग्रह सर्वथा ही त्याग कर । नग्न जिनमुद्रा जु समता ज्ञान दर्शन ध्याय कर ॥ शुद्ध निज चिद्रूप का जो सतत करते स्मरण । वही है चारित्र सम्यक् भवोदधि तारण तरण ॥ अतः रत्नत्रय सजग हो ह्रदय धरना चाहिये ।
शुद्ध निज चिद्रूप की ही प्राप्ति करना चाहिए ||१६|| ॐ ह्रीं द्वादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१७)
ज्ञप्तया दृष्टया युतं सम्यक्चारित्रं तन्निरुच्यते ।
सत्तां सेव्यं जगत्पूज्यं स्वर्गादिसुखसाधनम् ||१७||
अर्थ- सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के साथ ही सम्यक् चारित्र सज्जनों को आचरणीय है, और वह ही समस्त संसार में पूज्य तथा स्वर्ग आदि सुखों को प्राप्त कराने वाला है ।
१७. ॐ ह्रीं जगत्पूज्यस्वर्गादिसुखसाधनररूपसम्यक्चारित्रविकलल्परहितशुद्ध चिद्रूपाय नमः ।
पवित्रचिदालयस्वरूपोऽहम् ।