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२५३ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान नवदेवों की सुछवि न भाई इत उत भटका है संसार |
नरक त्रिर्यंच देव नर गति में पाए कष्ट अनंत अपार || ॐ ह्रीं द्वादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अयं नि. ।
(१४) निवृत्तिर्यत्र सावद्यात् वृः शुभप्रत्तिकर्मसु ।
त्रयोदशप्रकारं तच्चारित्रं व्यवहारतः ॥१४॥ अर्थ- जहां पर सावद्य हिंसा के कारण रूप कार्यो से निवृत्ति और शुभ कार्यों में प्रवृत्ति हो, उसे व्यवहार चारित्र कहते हैं। और वह तेरह प्रकार का है। १४. ॐ ह्रीं त्रयोदशप्रकारव्यवहारचारित्रविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
निष्क्रियचित्स्वरूपोऽहम् ।
हरिगीता सावद्य हिंसा से निवृत्ति प्रवृत्ति हो शुभ कार्य में । यही है व्यवहार चारित त्रयोदश विधि मार्ग में | अतः रत्नत्रय सजग हो ह्रदय धरना चाहिये ।
शुद्ध निज चिद्रूप की ही प्राप्ति करना चाहिए ॥१४॥ ॐ ह्रीं द्वादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१५) मूलोत्तरगुणानां यत्पालनं मुक्तये मुनः ।
दृशा ज्ञानेन सयुक्तं तच्चारित्रं न चापरम् ||१५|| अर्थ- सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के सात जो मूल और गुणों का पालन करना है, वह चारित्र है। अन्य नहीं। तथा यही चारित्र मोक्ष का कारण है। १५. ॐ ह्रीं मूलोत्तरगुणपालनरूपचारित्रविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
अक्षुब्धोऽहम् । शुद्ध समकित ज्ञान के संग मूल उत्तर गुण पले । वही है चारित्र उत्तम वही कर्मो को दले ॥ अतः रत्नत्रय सजग हो ह्रदय धरना चाहिये । शुद्ध निज चिद्रूप की ही प्राप्ति करना चाहिए ॥१५॥