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२५२ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी द्वादशम अध्याय पूजन चारों गतियों के दुख पाये कभी नहीं उद्धार हुआ । जहाँ गया दुख ही दुख पाया प्रतिपल कष्ट अपार हुआ||
अर्थ- परन्तु जिसे स्वस्वरूप का ज्ञान हो। जो शुद्धचिद्रूप को जानें वह निश्चय सम्यग्ज्ञान है । यह निश्चय सम्यग्ज्ञान समस्त कर्मो का नाशक है। और मोक्षरूपी लक्ष्मी की प्राप्ति में परम कारण है। इससे मोक्ष सुख अवश्य प्राप्त होता है । १२. ॐ ह्रीं कर्मरेणूच्चयघातहेतुसम्यग्ज्ञानविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
शिवश्रीस्वरूपोऽहम् ।
हरिगीता ज्ञान हो स्वस्वरूप का जिससे वही निज ज्ञान है । यही निश्चय ज्ञान करता कर्म का अवसान है | मोक्ष रूपी लक्ष्मी की प्राप्ति का कारण यही । मोक्ष सुख का प्रदाता है भवोदधि तारण यही ॥ अतः रत्नत्रय सजग हो हृदय धरना चाहिये ।
शुद्ध निज चिद्रूप की ही प्राप्ति करना चाहिए ॥१२॥ ॐ ह्रीं द्वादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१३) यदि चिद्रूपेऽनुभवो मोहाभावे निजे भवेत्तत्वात् ।
तत्परमज्ञानं स्याद्वहिरंतरसगमुक्तस्य ॥१३॥ अर्थ- मोह के सर्वथा नाश हो जो पर बाह्य आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों से रहित पुरुष का जो आत्मिक शुद्धचिद्रूप का अनुभव करना है, वही वास्तविक रूप से परम ज्ञान है। १३. ॐ ह्रीं बहिरन्तरसङ्गरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
अक्षयपरमबोधोऽहम् । मोह क्षय कर बाह्य अंतर परिग्रह से रहित है । आत्मिक चिद्रूप अनुभव आत्म ज्ञान सुसहित है ॥ अतः रत्नत्रय सजग हो हृदय धरना चाहिये । शुद्ध निज चिद्रूप की ही प्राप्ति करना चाहिए ॥१३॥