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२५१ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान मिली मनुज गति महा पुण्य से भाव मरण करता रहता।
आत्म स्वरूप नहीं लख पाता भव सागर दुख में बहता॥ अर्थ- जो महानुभाव मोक्षसुख के अभिलाषी है। मोक्ष की प्राप्ति से ही अपना कल्याण समझते हैं। वे जैनशास्त्र में वर्ण किये गये सम्यग्दर्शन को उसके आठ अंगों के साथ धारण करते हैं। १०. ॐ ह्रीं अष्टाङ्गयुक्तसम्यग्दर्शनधारणविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
शुचिसच्चिद्रूपोऽहम् । मुक्ति सुख अभिलाष जो कल्याण निज का चाहते । अंग आठों सहित वे सम्यक्त्व उर में धारते ॥ अतः रत्नत्रय सजग हो ह्रदय धरना चाहिये ।
शुद्ध निज चिद्रूप की ही प्राप्ति करना चाहएि ॥१०॥ ॐ ह्रीं द्वादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि ।
(११) - अष्टधाचारसंयुक्तं ज्ञानमुक्तं जिनेशिना ।
व्य.वहारनयाच्छर्वतत्वोद्भासो भवेद्यतः ॥११॥ अर्थ- भगवान जिनेन्द्र ने व्यवहार से आठ प्रकार के आचारों से युक्त ज्ञान बतलाया हैं। और उससे समस्त पदार्थो का भले प्रकार प्रतिभास होता है। ११. ॐ ह्रीं अष्टाचारसंयुक्तज्ञानविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
शुद्धज्ञाननिलयस्वरूपोऽहम् | व्यवहार से आचार वसुयत ज्ञान ही तो ज्ञान है । सब पदार्थो का सतत प्रा भंस ही वह ज्ञान है | अतः रत्नत्रय सजग हो ह्रदय धरना चाहिये ।
शुद्ध निज चिद्रूप की ही प्राप्ति करना चाहएि ॥११॥ ॐ ह्रीं द्वादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१२) स्वस्वरूपपरिज्ञानं तज्ज्ञानं निश्चयादवरम् । कर्मरेणूच्चये वातं हेतुं विद्धिशिवश्रियः ॥१२॥