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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी द्वादशम अध्याय पूजन
गति त्रिर्यंच के भी दुख पाता वध बंधन से भरे हुए । पलभर चैन नहीं मिल पाता दुख तरु सारे हरे हुए ||
कर्मरूपी ईधन के लिये जाज्वल्यमान अग्नि है। निश्चय सम्यग्दर्शन के आश्रय से समस्त कर्म जलकर खाक हो जाते हैं ।
८. ॐ ह्रीं कर्मैन्धनहुताशनहेतुरूपसद्दर्शनविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । अव्याबाधोऽहम् । हरिगीता
आत्मिक चिद्रूप रुचि सम्यकक्त्व निश्चय युत महान । कर्म ईंधन जलाने में अग्नि सम जाज्ज्वल्यमान ॥ अतः रत्नत्रय सजग हो ह्रदय धरना चाहिये ।
शुद्ध निज चिद्रूप की ही प्राप्ति करना चाहिए ॥८॥
ॐ ह्रीं द्वादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
(९)
यदि शुद्धचिद्रूपं निजं समस्तचं त्रिकालगं युगपत् ।
जानन् पश्चन् पश्यति तदा स जीवः सुदृक् तत्वात् ॥९॥
अर्थ- जो जीव तीन काल में रहनेवाले अपने शुद्धचिद्रूप को एक साथ जानता देखता है, वास्तविक दृष्टि से वही सम्यग्दृष्टि है।
९. ॐ ह्रीं त्रिकालगतपरवस्तुविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
निराबाधोऽहम् |
जीव जो त्रय कालवर्त्ती जानता चिद्रूप को । वही सम्यक् दृष्टि है जो देखता निज रूप को ॥ अतः रत्नत्रय सजग हो ह्रदय धरना चाहिये । शुद्ध निज चिद्रूप की ही प्राप्ति करना चाहिए ॥९॥ ॐ ह्रीं द्वादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
(१०) ज्ञात्वाष्टांगानि तस्यापि भाषितानि जिनागमे ।
तैरमा धार्यते तद्धिमुक्तिसौख्याभिलाभिणा ॥१०॥