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२४९ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
नरकों में जा शीत उष्ण वेदना महान उठाता है । कठिनाई से महा पुण्य से जब तब बाहर आता है ॥
६. ॐ ह्रीं सप्ततत्त्वाष्टाङ्गादिश्रद्धानविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निराकाङ्क्षोऽहम् | हरिगीता
व्यवहार से श्रद्धान सातों तत्त्व का समकित कहा । अंग वसु त्रय भेद उपशम क्षयोपशम क्षायिक कहा || अतः रत्नत्रय सजग हो ह्रदय धरना चाहिये ।
शुद्ध निज चिद्रूप की ही प्राप्ति करना चाहिए ॥६॥ ॐ ह्रीं द्वादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(७)
सत्ता वस्तूनि सर्वाणि स्याच्छब्देन वचांसि च ।
चिता जगति व्याप्तानि पश्यन् सददृष्टिरुच्यते ॥७॥
अर्थ- जो महानुभाव सत्रूप से समस्त पदार्थों का विस्वास कराता है। अनेकांत रूप से समस्त वचनों को बोलता है और जिसको वह श्रद्धान हैं, कि समस्त जगत ज्ञान से व्याप्त हैं, वह सम्यग्दृष्टि है।
७. ॐ ह्रीं स्याच्छब्दयुक्तवचनविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
विष्णुस्वरूपोऽहम् |
सत स्वरपी वस्तु का विश्वास जिसके ह्रदय में । देखता सब श्रद्धता समदृष्टि रह निज निलय में ॥ अतः रत्नत्रय सजग हो ह्रदय धरना चाहिये ।
शुद्ध निज चिद्रूप की ही प्राप्ति करना चाहिए ||७|| ॐ ह्रीं द्वादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
(८)
स्वविकीये शुद्धचिद्रपे रुचि र्या निश्चयेन तत् ।
सद्दर्शनं मतं तज्ज्ञैः कर्मेधनहुताशनम् ॥८॥
अर्थ- आत्मिक शुद्धचिद्रूप में जो रुचि करना है, वह निश्चय सम्यग्दर्शन है। और यह