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२४८ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी द्वादशम अध्याय पूजन
स्वर्गो में जा कुछ साता पा लेता है विनाशकारी । पुनः अधोगति में जाता है भव दुख पाता भ्रमकारी ॥
४. ॐ ह्रीं दर्शनज्ञानचारित्रात्मस्वरूपाय नमः 1 चैतन्यचिन्होऽहम् | हरिगीता
जिनेश्वर ने एक संग सम्यक्त्व ज्ञान चरित्र युत । आत्मा की प्रकृति को ही कहा रत्नत्रय सुव्रत ॥ अतः रत्नत्रय सजग हो ह्रदय धरना चाहिये ।
शुद्ध निज चिद्रूप की ही प्राप्ति करना चाहएि ॥४॥ ॐ ह्रीं द्वादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
(५) निश्चयव्यवहाराभ्यां द्विधा तत्परिकीर्त्तितम् ।
सत्यस्मिन् व्यवहारे तन्निश्चयं प्रकटीभवेत् ॥५॥
अर्थ- यह रत्नत्रय निश्चय और व्यवहार के भेद से दो प्रकार का है। और व्यवहार रत्न त्रय के होते ही निश्चय रत्नत्रय की प्रकटता होती 1
५. ॐ ह्रीं निश्चयव्यवहाररत्नत्रयविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । अखण्डशिवनिलयस्वरूपोऽहम् ।
रत्नत्रय निश्चय तथा व्यवहार से है दो प्रकार । जहाँ हो व्यवहार निश्चय रत्न त्रय होता अपार ॥ अतः रत्नत्रय सजग हो ह्रदय धरना चाहिये ।
शुद्ध निज चिद्रूप की ही प्राप्ति करना चाहिए ॥५॥ ॐ ह्रीं द्वादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि.
(६)
श्रद्धानं दर्शनं सप्ततत्त्वानां व्यवहारतः ।
अष्टांगं त्रिविधं प्रोक्तं तदौपशमिकादितः ॥६॥
अर्थ-व्यवहारनय से सातों तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन हैं। और इसके आठ अंग हैं। तथा यह औपुशमिक क एवं क्षोपोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का है।