________________
२४७ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान जो शुद्धात्म तत्त्व निज ध्याता भव से वही सटकता है । जो न ध्यान कर पाता वह भव तरु पर सदा लटकता है |
बिना रत्नत्रय किसी ने भी न पाया निज स्वरूप । प्रथम रत्नत्रय लिया फिर लिया है चिद्रूप रूप ॥ अतः रत्नत्रय सजग हो ह्रदय धरना चाहिये ।
शुद्ध निज चिद्रूप की ही प्राप्ति करना चाहिए ॥२॥ ह्रीं द्वादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(3) रत्नत्रयाद्धिना चिद्रूपोपलब्धिर्न जायते । यथर्धिस्तपसः पुत्रीपितुर्वृष्टिर्वलाहकात् ॥३॥
अर्थ- जिस प्रकार तप के बिना ऋद्धि, पिता के बिना पुत्री, और मेघ के बिना वर्षा नहीं हो सकती उसी प्रकार बिना रत्नत्रय की प्राप्ति के शुद्धचिद्रूप की भी प्राप्ति नहीं हो सकती। ३. ॐ ह्रीं वृष्टिकारणवलाहकविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
ब्रह्मामृतस्वरूपोऽहम् । हरिगीता
बिना तप के ऋद्धि दुर्लभ बिन पिता पुत्री नहीं । मेघ बिन वर्षा नहीं है कार्य कारण बिन नहीं ॥ बिना रत्नत्रय न होती प्राप्ति निज चिद्रूप की । यही रत्नत्रय सुकारण प्राप्ति में चिद्रूप की ॥ अतः रत्नत्रय सजग हो ह्रदय धरना चाहिये ।
शुद्ध निज चिद्रूप की ही प्राप्ति करना चाहिए ॥३॥ ॐ ह्रीं द्वादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(४)
दर्शनज्ञानचचारित्रस्वरूपात्मप्रवर्त्तनम् ।
युगपदभण्यते रत्नत्रयं सर्वजिनेश्वरैः ॥४॥
अर्थ- भगवान जिनेश्वर ने एक साथ सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र स्वरूप आत्मा की प्रवृत्ति को रत्नत्रय कहा है ।