________________
२४६ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी द्वादशम अध्याय पूजन आर्त्तरौद्र ध्यानों में मिथ्यादृष्टि अटकता रहता है । चारों गति के भँवर जाल में सतत भटकता रहता है |
अर्ध्यावलि
द्वादशम अधिकार
शुद्ध चिद्रूप की प्राप्ति के असाधारण कारण रत्नत्रय (9)
रत्नत्रयोपलभेन बिना शुद्धचिदात्मनः ।
प्रादुर्भावो न कस्यापि श्रूयते हि जिनागमे ||१||
अर्थ- जैन शास्त्र से यह बात जानी गई हैं कि बिना रत्नत्रय को प्राप्त किये आज तक किसी भी जीव को शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति न हुई । सबको रत्नत्रय के लाभ होने पर ही हुई है।
१. ॐ ह्रीं रत्नत्रयोपलम्भविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः |
शिवरत्नोऽहम् ।
छंद हरिगीता
बिना रत्नत्रय न होती प्राप्ति शुद्ध लाभ रत्नत्रय मिले तो प्राप्ति हो अतः रत्नत्रय सजग हो ह्रदय धरना चाहिये ।
स्वरूप की । चिद्रूप की ॥
शुद्ध निज चिद्रूप की ही प्राप्ति करना चाहिए ॥१॥
ॐ ह्रीं द्वादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(२)
बिना रत्नत्रयं शुद्धचिद्रूपं न प्रपन्नवान् ।
कदापि कोऽपि केनापि प्रकारेण नरः क्वत् ॥२॥
अर्थ- बिना रत्नत्रय के प्राप्त किये आज तक किसी मनुष्य ने कहीं कभी किसी दूसरे उपाय से शुद्धचिद्रूप को प्राप्त न किया। सभी ने पहिले रत्नत्रय को पाकर ही शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति की है ।
२. ॐ ह्रीं ज्ञानरत्नाकरस्वरूपाय नमः |
अनन्तगुणरत्नोऽहम् ।