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________________ २५५ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान पहिले जिनदर्शन पूजन कर सदाचार का ले आधार । फिर कर स्वाध्याय शास्त्रों का फिर तू अपना रूप विचार || सज्जनों को ज्ञान दर्शन चरित्र आचरणीय हैं । पूज्य है संसार में सुख शान्ति हित करणीय हैं ॥ अतः रत्नत्रय सजग हो ह्रदय धरना चाहिये । शुद्ध निज चिद्रूप की ही प्राप्ति करना चाहिए ॥१७॥ ॐ ह्रीं द्वादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (१८) शुद्धे स्वे चित्स्वरूपे या स्थितिरत्यन्तनिश्चला । तच्चारित्रं परं विद्धि निश्चयात्कर्मनाशकृत् ||१८|| अर्थ- आत्मिक शुद्धस्वरूप में जो निश्चय रूप से स्थिति है, उसे निश्चय चारित्र कहते हैं। और इस चारित्र की प्राप्ति से समस्त कर्मों का अवश्यक ही नाश हो जाता है। अर्थात् निश्चय चरित्र के प्राप्त होते ही जीव समस्त कर्मो का नाशकर सिद्ध अवस्था को प्राप्त होते हैं। १८. ॐ ह्रीं कर्मनाशहेतुचारित्रविकल्परहितशुद्धस्वरूपाय नमः । निश्चलशिवालयस्वरूपोऽहम् । हरिगीता ज्ञान दर्शन स्वबल से आत्मा स्व में यदि थित रहे । वही निश्चय श्रेष्ठ चारित स्वयं में सुस्थित रहे ॥ अतः रत्नत्रय सजग हो ह्रदय धरना चाहिये । शुद्ध निज चिद्रूप की ही प्राप्ति करना चाहिए ॥१८॥ ॐ ह्रीं द्वादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (१९) यदि चिद्रूपे शुद्धे स्थितिर्निजे भवति दृष्टिबोधबलात् । परद्रव्यंस्यास्मरणं शुद्धनयादगिनो वृत्तम् ॥१९॥ अर्थ- यदि इस जीव की सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के बल से शुद्धचिद्रूप में निश्चय रूप से स्थिति हो जाय। और पर पदार्थों से सर्वथा प्रेम हट जाय, तो उसी को शुद्धनिश्चय
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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