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२३. श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
यदि परिणाम स्वयं से ही होएक निष्ठतो हो दुखक्षय । संवर युत निर्जरा पूर्वक होता प्राप्त मुक्ति आलय ॥ फिर तो संसार के फंदों में नहीं उलझुंगा । शुद्ध चिद्रूप का ही ध्यान करके सुलझेंगा ॥ इसके अन्तर्मुहूर्त्त ध्यान का कहना क्या है । ज्ञान कैवल्य प्रभो स्वयं प्रकट हो जाए ॥ बने अरहंत औ सर्वज्ञ मोह को जयकर घातिया चार नाश वीतराग पद पाए शुद्ध चिद्रूप ही है गुण अनंत का दाता । जो भी इसको जपे तो स्वयं सिद्ध हो जाए ॥ करता हूँ यह विधान भाव पूर्वक स्वामी । शुद्ध चिद्रूप का वैभव महान मिल जाए ||
छंद दिग्वधू
शुद्धातम चेतन हूं
इस जग से न्यारा मैं नित्य निरंजन हूं सब जानन हारा मैं ज्ञाता दृष्टा हूँ चेतन चिद्रूपी गुण ज्ञान अनंत सहित मैं सिद्ध स्वरूपी मैं अमल अखंड अतुल. अविकल अविनाशी अविकारी अजर अमर मैं स्वपर प्रकाशी मैं ज्ञानानंद मयी ध्रुवधाम स्वरूपी पुद्गल से भिन्न अरे चैतन्य अनपी चिच्चममत्कार चेतनं मैं शुद्ध स्वभावी निज दर्शन सुख बलमय पर द्रव्य अभावी हूँ ॥ परभावों में पड़कर मैं निज को भूल गया पुद्गल की संगति कर निज के प्रतिकूल गया है संग अचेतन का भव भव में भटका हूँ बनकर अनात्मा प्रभु चहुँगति में अटका
हूँ
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