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पर के प्रति शुभ परिणामों से पुण्य बंध हो जाता है । पर के प्रति परिणाम अशुभ से पाप बंध हो जाता है | शताब्दी पंद्रह हुई मुनि युक्त पंच महाव्रततम् । अध्याय अष्टादश रचे हैं श्रेष्ठ मंगल दायकम् ॥ आज रचता हूँ विधान सुतत्त्वज्ञान तरंगिणी । भाव भाषा अर्थ युत यह दिव्य ध्वनि सुख दायिनी ॥ भूल इसमें रह न जाए यही है प्रभु प्रार्थना । शुद्ध निज चिद्रूप पाऊं यही है प्रभु याचना ॥ सकल कीर्ति सुमुनि के श्री भुवन कीर्ति सुशिष्य थे । ज्ञान भूषण इन्हीं के परिपूर्ण योग्य सुशिष्य थे | वर्ष बीते पांच सौ इस ग्रंथ की रचना हुए । इसे पढ़कर बहु सुमुनि चिद्रूप निज में रत हुए | पाँच सौ छत्तीस थे श्लोक शुभ इस ग्रंथ में । तीन सौ सत्तावने उपलब्ध अब हैं ग्रंथ में | शेष का कुछ पता मिलता ही नहीं दुर्भाग्य है । किन्तु जो उपलब्ध हैं वह बड़ा ही सदभाग्य है ॥ इसे पढ़कर ज्ञान करके हम त्वरित आगे बढ़े । मुक्ति के सोपान पर हम क्रमिक हे स्वामी चढ़े || यह विधान लिखा गया है भाव से अभिभूत हो । शुद्ध निज चिद्रूप का ही ध्यान ह्रदय प्रसूत हो || भावना मंगलमयी है सभी का कल्याण हो । मुक्ति पथ पर चलें हम सब कर्म का अवसान हो ||
गीत शुद्ध चिद्रूप का यदि ध्यान ह्रदय को भाए । तो फिर आनंद अतीन्द्रिय का स्वाद आ जाए |
सोपान पर क हम त्वरितदभाग्य है ।
यह