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अविरत सम्यक् दृष्टि जीव ही चौथा गुणस्थान वर्त्ती । शुद्ध स्वरूपाचरण युक्त है निज स्वरूप का अनुवर्ती ॥ रत्नत्रय धारूँ तो अंतर उजियारा हो । भव बंधन कट जाएं जग से छुटकारा हो ॥ चिद्रूप शुद्ध अपना प्रतिपल प्रतिक्षण ध्याऊँ । अपनी स्वशक्ति से प्रभु भव सागर तर जाऊँ ॥ दोहा
परम शुद्ध चिद्रूप की महिमा अपरंपार । तत्त्वज्ञान बरसात पा हो जाऊँ भव पार ॥ पुष्पांजलि क्षिपानि
भजन
नास्तिकता को छोड़ जीव जब निःशंकित हो जाता है । निज स्वभाव का अनुभव करता परमात्मा पद पाता है ॥ क्रोधादिक कषाय को जयकर आत्म तत्व में हो तत्पर । शुद्ध स्वरूप भाव में तन्मय वीतराग पद अजरामर ॥ मिथ्या भाव अनिष्ट छोड़कर जो भव भाव विलय करता । श्रेष्ठ स्वभाव प्रकाशित करके कर्म घातिया जय करता ॥ इष्ट धर्म संयोग जहाँ हो वहीं स्वभाव प्रगट होता । केवलज्ञान प्रकाशित होता कर्म अघाति विघट होता ॥ कमल समान प्रफुल्लित अपने ही स्वभाव का अनुभव कर । क्षायिक सम्यक् दर्शन प्रगटा अब तो कर्म निर्जरा कर || शुद्ध दृष्टि जब हो जाती है सब संकल्प विकल्प रहित । परमानंद भाव होता है होता सकल विजल्प रहित ॥ एक मात्र शुद्धात्म तत्व निज वन्दनीय है तीनों काल । यही सिद्ध अरहंत साधु है अर्चनीय है महाविशाल ॥