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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
पांचों परमेष्ठी महान हैं जिनवाणी जिनधर्म महान । जिन चैत्यालय जिनप्रतिमा नवदेव यही है श्रेष्ठ प्रधान ॥
संयम धारेगा शिवकारी हो जाएगा यह अविकारी । तब चिद्रूप शुद्ध पाएगा सिद्ध स्वपद निज प्रगटाएगा || दोहा
महाअर्घ्य अर्पित करूं नाश करूं विद्रूप | नव नूतन सुख स्रोत है एक शुद्ध चिद्रूप ॥
ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय महाअर्घ्य नि. ।
जयमाला
ताटंक
दुर्निवार कंदर्प दर्प को क्षय करता है यह आत्मा । पुण्य पाप रागादि भावकर सौख्य रहित होता आत्मा ॥ क्लेशोदधि का मिला किनारा पायी संयम की तरणी । जल्दी से तू इस पर चढ़ जी यह भव सागर दुख हरणी ॥ अपना यह भगवान आत्मा वीतराग जिन बिम्ब स्वरूप । यह अनादि से ही शिवसुखमय निज स्वभावमय मोक्षस्वरूप॥ विषय कषायों के डाकू मिल लूट रहे तेरी संपत्ति । विषय कषाय भाव तजने पर ही जाएगी घोर विपत्ति ॥ नित्य शुद्ध चिद्रूप शक्ति का अगर भाव हो जाएगा । पीते ही आनन्दामृत फिर राग न रहने पाएगा ॥ पूर्णानन्द स्वरूप आत्मा का जब हो जाता है भान । तभी आत्मा पा लेता है अपना सिद्ध स्वपद निर्वाण ॥ निज स्वभाव का अरु विभाव का मेल नहीं होता चेतन । निज स्वभाव का आश्रय लेने वाला शिव होता चेतन ॥ आत्म स्वरूप निवृत्ति रूप है परम शान्त है सुखदायी । किन्तु शुभाशुभ जो विभाव की प्रवृत्ति है वह दुखदायी ॥