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२४२ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी एकादशम अध्याय पूजन नव देवों के अनुयायी श्रावक करते हैं नित स्वाध्याय । स्वाध्याय ही मंगलमय तप स्वाध्याय ही शिवसुखदाय ||
जब आनंद अतीन्द्रिय का आल्हाद ह्रदय में आता है | तत्क्षण ही चैतन्यराज निज परमात्मा पद पाता है | एक अनादि निधन हेतु तो है आनंद कंद प्रभु आप । तेरे भीतर कहीं नहीं है कोई भी भव का संताप ॥ सावधान हो जाएगा तो कर्म चोर क्यों आएंगें । जो पहिले से भीतर बैठे वे भी सब भग जाएंगे | असावधानी से लुट जाएगा तो बहु दुख पाएगा । तेरी दुखमय दशा देखकर कोई बचा न पाएगा ॥ अतः निरंतर सावधान हो निज रत्नत्रय त्वरित संवार | ये ही तुझको ले जाएगा दुखप्रद भव समुद्र के पार || अद्भुताद्भुत शुद्ध आत्मा सत् चित् आनंद रूप महान। साक्षात् चैतन्य महा प्रभु परम स्वयंभू ध्रुव भगवान ॥ प्रीतवंत अपने स्वभाव में ही संतुष्ट अभी हो जा । परम तृप्त हो निज स्वरूप में लय हो शुद्ध सिद्ध हो जा॥ चिदानंद आनंद कंद चिद्रूप शुद्ध निज अधिपति है ।
चारों गतियों से पहीन है तेरी तो पंचम गति है ॥ ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार स न्वत श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय जयमाला पूर्णाऱ्या नि. ।
आशीर्वाद परम शुद्ध चिद्रूप का महाअर्घ्य बलवान । प्राणी निज पद प्राप्त कर करते दुख अवसान ||
इत्याशीर्वाद