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२४० श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी एकादशम अध्याय पूजन इनके अनुयायी श्रावक जन उत्तम समकित धारी हैं । एक देश संयम के धारी निर्मल अणुव्रत धारी हैं |
महाअर्घ्य
छंद गज़ल शुद्ध चिद्रूप की महिमा के गीत गाऊंगा । धारा आनंद अतीन्द्रिय की मैं भी पाऊंगा ॥ बना विद्रूप मैं अपनी ही भूल के कारण । त्याग विद्रूप अब चिद्रूप उर सजाऊंगा ॥ राग की बीन बजा कर के हुआ हूँ कुन्ठित । अपने चिद्रूप के ही वाद्य अब बजाऊंगा ॥ तत्त्व श्रद्धान मुझे बहुत भला लगता है । इसी की शक्ति से मैं सिद्ध लोक जाऊंगा || पूर्ण सुख का समुद्र उर हिलोर लेता है । इसको पाकर मैं नहीं किसी ओर जाऊंगा ||
छंद चौपायी एक शुद्ध चिद्रूप हमारा बना हुआ विद्रूप बिचारा । जड़ पुद्गल तन के संग रहता भव समुद्र भंवरों संग बहता॥ राग द्वेष मद प्रतिपल पीता पर भावों में ही यह जीता | परभावों का दास बना है चारों गति का कष्ट घना है || मुक्ति पवन इसको ना भाता भव अटवी का भवन सुहाता। सद्गुरु जब समझाने आते इसको उनके वचन न भाते॥ नहीं सीखता भेदज्ञान विधि व्यर्थ खो रहा है अपनी निधि। जब तक है मिथ्यात्व ह्रदय में भेद न जानेगा जल पय में || जब स्वकाल पाएगा उत्तम करणलब्धि होगी अत्युत्तम । यह सम्यक् दर्शन पाएगा भेद ज्ञान उर में लाएगा ॥