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२३९ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान पंचमहाव्रत पंचसमिति त्रयगुप्ति त्रयोदश विध चारित्र । है निग्रंथ साधु मुनि रत्नत्रय धारी अतिपरम पवित्र ||
(२२) दृश्यन्तेऽ गेधनादावनुजसुतसुताभीरुपित्रविकासु, ग्रामे गेहे खमोगे नगनगरखगे वाहने राजकार्ये । आहार्येऽगे वनादौ व्यसनकृषिमुख कूपवापीतडागे,
रक्ताश्च प्रेक्षणादौ यशसिपशुगणे शुद्धचिद्रूपके न ॥२२॥ अर्थ- इस संसार में कोई मनुष्य तो इत्र फुलेल आदि सुगन्धित पदार्थो में अनुरक्त हैं। और बहुत से छोटा भाई, पुत्र, पुत्री, स्त्री, पिता, माता, गांव, घर, इंद्रियों के भोग, पर्वत, नगर, पक्षी, सवारी, राजकार्य, खाने योग्य पदार्थ, शरीर, वन, व्यसन, खेती, कुआ, बाबड़ी, और तालाबों में प्रेम करने वाले हैं, और बहुत से अन्य मनुष्यों के इधर उधर भेजने में यश और पशु गणों की रक्षा करने में अनुराग करने वाले हैं। परन्तु शुद्ध चिद्रूप का अनुरागी कोई भी मनुष्य नहीं है । २२. ॐ ह्रीं गन्धनादिविषयकरागरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
अगन्धोऽहं ।
वीरछंद इस जग में कोई मनुष्य तो इत्र फुलेल गंध अनुरक्त । कोई मात पिता गृह भोग आदि विषयों में ही है रक्त ॥ पर चिद्रूप शुद्ध अनुरागी खोजे पर भी ना मिलते । भिन्न भिन्न है प्रकृति सभी की निज को तज पर में रहते॥ बाह्य पदार्थों में होकर के मुग्ध व्यर्थ दुख पाते हैं ।
निज चिद्रूप शुद्ध को ये भी भूले से ना ध्याते हैं |॥२२॥ ॐ ह्रीं भट्टारकज्ञानभूषणविरचित तत्त्वज्ञानतरंगिण्यां शुद्धचिदू पासत्त विरलप्रतिपादकैकादशाध्याये नित्याज्ञानानन्दस्वरूपाय पूर्णार्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।