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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान . तीर्थयात्रा करना है तो आत्म तीर्थ की ओर चलो । ज्ञान भावना भाते भाते पाप पुण्य परभाव दलो ॥
(११) पंचाक्षसंज्ञिपूर्णेषु केचिदासन्नभव्यताम् ।
नुत्वं चालभ्य तादृक्षा भवन्त्यार्याः सुबुद्धयः ॥११॥ अर्थ- परन्तु जो जीव पंचेन्द्रिय संज्ञी (मन सहित) पर्याप्त हैं, उनमें भी जो आर्य स्वपर स्वरूप के भले प्रकार जानकार हैं; और आसन्न भव्य बहुत शीध्रघमोक्ष प्राप्त करने वाले हैं। वे ही शुद्धचिद्रूप का ध्यान कर सकते हैं। ११. ॐ ह्रीं पञ्चाक्षसंज्ञिपूर्णादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
- अक्षातीतोऽहं । संज्ञी पंचेन्द्रिय समर्थ है आत्म ज्ञान में भली प्रकार । पर आसन्न भव्य ही करता परम शुद्ध चिद्रूप विचार || अतः तत्व ज्ञानी विरले हैं जो करते अपना कल्याण ।
एकमात्र चिद्रूपं शुद्ध ध्या पा लेते निज पद निर्वाण ||११॥ ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१२) शुद्धचिद्रूपसंलीनाः सव्रता न कदाचन ।
नरलोकवहि गेऽसंख्यातद्वीपवार्धिषु ॥१२॥ अर्थ- ढाई द्वीप तक मनुष्य क्षेत्र है। और उसके आगे असंख्यात द्वीप समुद्र हैं। उनमें रहने वाले भी जीव कभी शुद्धचिद्रूप में लीन और व्रतों से भूषित नहीं हो सकते । १२. ॐ ह्रीं असंख्यातद्वीपसमुद्रगतजीवविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
स्वात्मनिलयस्वरूपोऽहं ।
वीरछंद ढाई द्वीप तक मनुज लोक है आगे द्वीप समुद्र असंख्य। उनमें रहने वाले प्राणी शुद्ध ज्ञान में सदा अशक्य || अतः तत्व ज्ञानी विरले हैं जो करते अपना कल्याण । एकमात्र चिद्रूप शुद्ध ध्या पा लेते निज पद निर्वाण ॥१२॥