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________________ २३४ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी एकादशम अध्याय पूजन जो जीवंत शक्ति से संयुत हो शिवपथ पर चलता है । वही आत्मा को ध्यातेध्याते कर्मो को दलता है | ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि । (१३) अधोलोके न सर्वस्मिन्नूर्ध्वलोकेऽपि सर्वतः । ते भवन्ति न ज्योतिष्के हा हा क्षेत्रस्वभावतः ॥१३॥ अर्थ- समस्त अधोलेक ऊर्ध्वलोकर और ज्योतिलोक में भी क्षेत्र के स्वभाव से जीव व्रतों के आचरण सहित शुद्धचिद्रूप का ध्यान नहीं कर सकते यह बड़ा कष्ट हैं । १३. ॐ ह्रीं क्षेत्रस्वभावगतव्रतायुक्तजीवविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । अनुपमज्ञानस्वरूपोऽहं । ऊर्ध्व अधो ज्योतिषी लोक तो व्रत धारण के सदा अयोग्य। क्षेत्र स्वभाव अनादि काल से ऐसा ही है सदा संयोग | अतः तत्व ज्ञानी विरले हैं जो करते अपना कल्याण । एकमात्र चिद्रूप शुद्ध ध्या पा लेते निज पद निर्वाण ॥१३॥ ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१४) नरलोके पि ये जाता नराः कर्मवशाद् घनाः । भोगभूम्लेच्छखण्डेषु ते भवन्ति न तादृशाः ॥१४॥ अर्थ- मनुष्य क्षेत्र में भी जो जीव भोगभूमि और म्लेच्छ खण्ड में उत्पन्न हुए हैं। उन्हें भी सधन रूप से कर्मो द्वार जकड़े हुए होने के कारण शुद्ध चिद्रूप का ध्यान ओर व्रतों का आचरण करने का अवसर प्राप्त नहीं होता । १४. ॐ ह्रीं भोगभूम्लेच्छखण्डगतजीवविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निर्लेपस्वरूपोऽहं । ताटंक मनुज क्षेत्र में भोग भूमि अरु म्लेक्ष खंड भी ना इस योग्य। जीव कर्म बंधन से जकड़े आत्म ध्यान के सदा अयोग्य||
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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