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. २३२ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी एकादशम अध्याय पूजन जब तक कर्मो की छाया है तब तक सुख होता न कभी। कर्म नष्ट हो जाएंगें तो फिर भव दुख होगा न कभी ||
दृश्यन्ते बहवो लोके नानागुणविभूषिताः ।
विरलाः शुद्धचिद्रूपे स्नेहयुक्ता व्रतान्विताः ॥९॥ अर्थ बहुत से मनुष्य संसार में नाना प्रकार के गुणों से भूषित रहते हैं। परन्तु ऐसे मनुष्य विरले ही हैं जो शुद्ध चिद्रूप में स्नेह करने वाले और व्रतों से भूषित हों । ९. ॐ ह्रीं लौकिकनानागुणभूषणरहितचिद्रूपाय नमः ।
बोधभूषणोऽहं । इस जग में आज्ञा गुण भूषित मनुज बहुत मिल जाते हैं। किन्तु शुद्ध चिद्रूप प्रेम रत नहीं दृष्टि में आते है || अतः तत्व ज्ञानी विरले हैं जो करते अपना कल्याण |
एकमात्र चिद्रूप शुद्ध ध्या पा लेते निज पद निर्वाण ॥९॥ ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१०) एकेन्द्रियादिसंज्ञाक्या: पूर्णपर्यन्तदेहिनः ।
अनंतानंतमा संति तेषु कोऽपि न तादृशः ॥१०॥ अर्थ- एकेन्द्रिय से लेकर पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जो जीव इस संसार में अनन्तानन्त भरे हुए हैं, उनमें तो शुद्धचिद्रूप के ध्यान करने की सामर्थ्य ही नहीं है । १०. ॐ ह्रीं अनन्तानन्तैकेन्द्रियादिपर्यायविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
अतीन्द्रियबोधस्वरूपोऽहं |
वीरछंद एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक जीव असंज्ञी बहुत प्रकार | किन्तु सभी असमर्थ आत्म चिन्तन में ऐसा यह संसार || अतः तत्व ज्ञानी विरले हैं जो करते अपना कल्याण ।
एकमात्र चिद्रूप शुद्ध ध्या पा लेते निज पद निर्वाण ॥१०॥ ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।