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२२४ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी एकादशम अध्याय पूजन बाहय पदाथों के समूह में जो भी प्राणी होता है । अक्षय पद को प्राप्त न करता दुखिया प्राणी होता है || महाकाम कंदर्प ने मुझको काटा ।
किए घाव तन पर अनंतों सदा ही । नहीं काम नाशक मिली है महौषधि ।
मिली भी तो मैंने त्वरित ही गँवाई ॥ मिला शुद्ध चिद्रूप का भव्य वैभव ।
तो फिर बोलो दुनिया में कैसे रहूँगा || निजानंद घन मैंने पाया है स्वामी ।
तो फिर बोलो भव धार कैसे बहूँगा || ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय कामबाण विनाशनाय पुष्पं नि. । क्षुधा व्याघि ने मुझको दुर्बल किया है ।
सभी शक्तियां छीन ली हैं निमिष में || स्वपद छोड़ भाया अपद ही मुझे प्रभु ।
मगन मैं रहा हूँ चतुर्गति के विष में || मिला शुद्ध चिद्रूप का भव्य वैभव ।
तो फिर बोलो दुनिया में कैसे रहूँगा ॥ निजानंद घन मैंने पाया है स्वामी ।
तो फिर बोलो भव धार कैसे बहूँगा || ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं नि. । महामोह ने मुझको अंधा बनाया ।
पता ही न चलता कभी मेरे घर का || बना संशयी घोर एकान्त वादी ।
कुनय ज्ञान विपरीत है मुझको पर का ||