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२२३ - .श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान सलिल ज्ञान गंगा की धारा सर्वेश्वर पद देती है । जन्म जरा मरणादि रोगत्रय पल भर में हर लेती है || निजानंद घन मैंने पाया है स्वामी ।
तो फिर बोलो भव धार कैसे बहूँगा || ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं नि. । भवातप विनाशक स्वचंदन मिला है ।
परम शान्त शीतल स्वभनी निराला || कहीं कोई भव ज्वर की बाकी न पीड़ा
रही है मेरा आत्मा है निराला || मिला शुद्ध चिद्रूप का भव्य वैभव ।
तो फिर बोलो दुनिया में कैसे रहूँगा ॥ निजानंद घन मैंने पाया है स्वामी ।
तो फिर बोलो भव धार कैसे बहूँगा ॥ ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय संसारताप विनाशनाय चंदनं नि. । भवोदधि मैं बह करके मैंने अनेकों ।
सुमेरु से ऊँचे महा दुख उठाए || रहा भव की पीड़ा से मैं नाथ व्याकुल ।
कभी आत्मा के न दर्शन सुहाए || मिला शुद्ध चिद्रूप का भव्य वैभव ।
तो फिर बोलो दुनिया में कैसे रहूँगा || निजानंद घन मैंने पाया है स्वामी ।
तो फिर बोलो भव धार कैसे बहूँगा || ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतं नि. ।
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