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२२५ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान अधुनातन जीवन जीने को आत्म ध्यान का लो आश्रय। विविध विकल्प नष्ट करने को जल्पादिक सब कर दो क्षय ||
मिला शुद्ध चिद्रूप का भव्य वैभव |
तो फिर बोलो दुनिया में कैसे रहूँगा ॥ निजानंद घन मैंने पाया है स्वामी ।
तो फिर बोलो भव धार कैसे बहूँगा || ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय मोहन्धकार विनाशनाय दीपं नि. । कभी धूप देखी नहीं धर्म की प्रभु ।
बिना ध्यान के ज्ञान कैसे मैं पाता || प्रभो अष्टकर्मो के इन हाथियों पर ।
बताओ कहाँ से विजय कैसे पाता || मिला शुद्ध चिद्रूप का भव्य वैभव ।
तो फिर बोलो दुनिया में कैसे रहूँगा || निजानंद घन मैंने पाया है स्वामी ।
____तो फिर बोलो भव धार कैसे बहूँगा || ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अष्टकर्म विनाशनाय धूपं नि । जगी मोक्ष पाने की इच्छा सदा ही ।
मगर भाव खोटे मैं करता रहा हूँ | महामोक्षफल तो बहुत दूर है प्रभु ।
भवोदधि में ही नाथ बहता रहा हूँ | मिला शुद्ध चिद्रूप का भव्य वैभव ।
तो फिर बोलो दुनिया में कैसे रहूँगा || निजानंद घन मैंने पाया है स्वामी ।
तो फिर बोलो भव धार कैसे बहूँगा ॥