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२१८ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी दशम अध्याय पूजन . प्रखर शक्ति जब इस आत्मा की क्षय करती आठों ही कर्म।
वस्तु स्वभाव धर्म को पाकर हो जाती पूरी निष्कर्म || में भी किसी प्रकार की हानि नहीं आती। वह भी पूर्ण रूप से पलता है; इसलिये यह निर्ममत्व ही चिंतवन करने के योग्य पदार्थ है । १८. ॐ ह्रीं अशुभकर्मानवादिरहितचिद्रूपाय नमः ।
निराम्रवोऽहम् ।
ताटंक निर्ममत्व भावों से अशुभास्रव का बंध नहीं होता । संयम में भी हानि न होती राग द्वेष भी क्षय होता ॥ निर्ममत्व ही चिन्तन करने योग्य पदार्थ जगत में है । इसको पाकर कहीं न कोई लघु श्रम भी इस जग में है। जो चिद्रूप शुद्ध की महिमा जान उसे ही ध्याता है ।
पर ममत्व को क्षय करता है महा मोक्ष पद पाता है ||१८॥ ॐ ह्रीं दशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१९) सदृष्टिर्ज्ञानवान् प्राणी निर्ममत्वेन संयमी ।
तपस्वी च भवेत्तस्मानिर्ममत्वं विचिंतयेत् ॥१९॥ अर्थ- इस निर्ममत्व की कृपा से जीव सम्यग्दृष्टि ज्ञानवान संयमी और तपस्वी कहलाता हैं; इसलिये जीवों को निर्ममत्व का ही चितवन कार्यकारी है । १९. ॐ ह्रीं संयमतपादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।.
__ शान्तोऽहम् । निर्ममत्व की कृपा प्राप्त कर सम्यक् दृष्टि जीव होता । ज्ञान ध्यान संयमी तपस्वी ज्ञानी ध्यानी मुनि होता ॥ इसीलिए जीवों को चिन्तन निर्ममत्व का सुखकारी । यही श्रेष्ठ कार्यकारी है सर्वोत्तम निज हितकारी ॥ जो चिद्रूप शुद्ध की महिमा जान उसे ही ध्याता है । पर ममत्व को क्षय करता है महा मोक्ष पद पाता है |॥१९॥