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________________ २१७ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान स्वपर भेद विज्ञान प्राप्त कर पाऊंगा निज की अनुभूति। निमिष मात्र में जाग्रत होगी निज अंतर में आत्म प्रतीति॥ पर पदार्थ से रखें न ममता निर्ममत्व पालन करते । तप व्रत अपरिग्रह पालन कर उत्तम धर्म प्राप्त करते ॥ जो चिद्रप शुद्ध की महिमा जान उसे ही ध्याता है । पर ममत्व को क्षय करता है महा मोक्ष पद पाता है ॥१६॥ ॐ ह्रीं दशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१७) निर्ममत्वाय न क्लेशो नान्ययाञ्चा न चाटनम् । न चिन्ता न व्ययस्तस्मान्निर्ममत्वं विचिंतयेत् ॥१७॥ अर्थ- इस निर्ममत्व के लिये न किसी प्रकार का क्लेश भोगन पड़ता है। न किसी से कुछ मांगना और न इधर उधर भ्रमण करना पड़ता है। किसी प्रकार की चिंता और द्रव्य का व्यय भी नहीं करना पड़ता। इसलिये निर्ममत्व ही ध्यान करने के योग्य है। १७. ॐ ह्रीं याचनचाटनादिरहितनिरपेक्षस्वरूपाय नमः । चैतन्यश्रीस्वरूपोऽहम् । वीरछंद निर्ममत्व के लिए भोगना क्लेश नहीं पड़ता है रंच । नहीं यातना नहीं चाटुता करना पड़ती नहीं प्रपंच ॥ तनिक न चिन्ता नहीं द्रव्य व्यय नहीं परिश्रम का है श्रम। अतः ध्यान निर्ममत्व करना है सर्वोत्तम पावन श्रम || जो चिद्रूप शुद्ध की महिमा जान उसे ही ध्याता है । पर ममत्व को क्षय करता है महा मोक्ष पद पाता है |॥१७॥ ॐ ह्रीं दशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१८) नाम्रवो निर्ममत्वेन न बधोऽशुभकर्मणाम् । नासंयमो भवेत्तस्मानिर्ममत्वं विचिंयतेत् ॥१८॥ | अर्थ- इस निर्ममत्व की ओर झुकने से अशुभ कर्म का आस्रव और बंध नहीं होता। संयम
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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