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________________ २१९ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान मोह राग द्वेषादि जीतने का जो करता नित्य उपाय । पंचम गुणस्थान पाने को सीख रहा है मोक्षोपाय ॥ ॐ ह्रीं दशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (२०) रागद्वेषादयो दोषा नश्यंति निर्ममत्वतः । साम्यार्थी सततं तस्मान्निर्ममतत्वं विचिंतयेत् ॥२०॥ अर्थ- इस निर्ममत्व के भले प्रकार पालन करने से राग द्वेष आदि समस्त दोष नष्ट हो जाते हैं, इसीलिये जो मनुष्य समता के अभिलाषी है. अपनी आत्मा को संसार के दुखों से मुक्त करना चाहते हैं, उन्हें चाहिये कि वे अपने मन को सब और से हटाकर शुद्धचिद्रूप की और लगावें । उसी का भले प्रकार मनन ध्यान और स्मरण करें। २०. ॐ ह्रीं रागद्वेषादिदोषरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । विरागोऽहम् । निर्ममत्व के पालन करने से सब दोष नष्ट होते । जो समता के अभिलाषी हैं इसको पा सुखिया होते ॥ भव दुख से जो बचना चाहें वे इसका ही ध्यान करें । सभी ओर से दृष्टि हटाकर मनन स्मरण ज्ञान करें ॥ जो चिद्रूप शुद्ध की महिमा जान उसे ही ध्याता है । पर ममत्व को क्षय करता है महा मोक्ष पद पाता है ॥२०॥ ॐ ह्रीं दशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (२१) विचार्येत्थमहंकारममकारौ विमुंचति । यो मुनिः शुद्धचिद्रूपध्यानं स लभते त्वरा ॥२१॥ अर्थ- इस प्रकार जो मुनि अहंकार और ममकार को अपने वास्तविक स्वरूप शुद्ध चिद्रूप की प्राप्ति के नाश करने वाले समझ उनका सर्वथा त्याग कर देता है। अपने मन को रंचमात्र भी उनकी और जाने नहीं देता, उसे शीघ्रघही संसार में शुद्धचिद्रूप के ध्यान की प्राप्ति हो जाती है । २१. ॐ ह्रीं अहंकारममकाररहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । अनुत्सेकोऽहम् ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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