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________________ २११ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान निज स्वरूप से तन्मय होकर आत्म भावना भाऊं । मैं सामान्य विशेष आत्मा को ही प्रतिपल ध्याऊँ ॥ (६) चिंतनं निरहंकारो भेत विज्ञानिनामिति । स एव शुद्धचिद्रूपलब्धये कारणं परम् ॥६॥ अर्थ- इस प्रकार का चिंतन करना निरहंकार अहंकार का अभाव है। और यह निरहंकार शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति में असाधारण कारण है । ६. ॐ ह्रीं मनष्यकर्मरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । ज्ञानकुलोऽहम् । मेरे भीतर अहंकार का है अभाव पूरा । मैं चिद्रूप शुद्ध निरहंकारी पूरा पूरा ॥ जो चिद्रूप शुद्ध का ध्याता वह सुख पाता है । जो चिद्रूप शुद्ध ना ध्याता वह दुख पाता है ॥६॥ ॐ ह्रीं दशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । ममत्वं ये प्रकुर्वनित परवस्तुषु मोहिनः । शुद्धचिद्रूपसंप्राप्तिस्तेषां स्वप्नेऽपि नो भवेत् ||७|| अर्थ- जो मूढ़ जीव पर पदार्थों में ममता रखते हैं, उन्हें अपनाते हैं, उनको स्वप्न में भी शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति नहीं हो सकती । ७. ॐ ह्रीं परवस्तुममत्वरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निर्ममचिद्रूपोऽहम् । जो पर में ममत्व रखते हैं पर को अपनाते । वे न स्वप्न में भी अपना चिद्रूप देख पाते ॥ जो चिद्रूप शुद्ध का ध्याता वह सुख पाता है । जो चिद्रूप शुद्ध ना ध्याता वह दुख पाता है ||७|| ॐ ह्रीं दशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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