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२१० श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी दशम अध्याय पूजन मैं विज्ञान ज्ञान हूँ मैं अहंत अवस्था पाऊंगा ।
पूर्ण प्रौढ़ता ज्ञान भाव की निज बल से प्रगटाऊँगा || निसन्देह अद्वैत स्वरूप शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति होती है । ४. ॐ ह्रीं अद्वैतस्वचिद्रूपाय नमः ।
निःसंशयस्वरूपोऽहम् । जो निरहंकारी भावों की ही सतत वृद्धि करते । अहंकार करते न रंच चिद्रूप शुद्ध वरते ॥ वे अद्वैत स्वरूप भावना को ही भाते हैं । निःसंदेह वही चिद्रूप शुद्ध को पाते हैं | जो चिद्रूप शुद्ध का ध्याता वह सुख पाता है ।
जो चिद्रूप शुद्ध ना ध्याता वह दुख पाता है ॥४॥ ॐ ह्रीं दशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
. (५) न देहोऽहं न कर्माणि न मनुष्यो द्विजोद्विजः ।
नैव स्थूलो कृशो नाहं किन्तु चिद्रूप लक्षणः ॥५॥ अर्थ- जो मनुष्य भेद विज्ञानी हैं। जड़ और चेतन का वास्तविक भेद जानते है। उनका न मैं देह स्वरूप हूं, न कर्म स्वरूप हूं, न मनुष्य हूं न ब्राह्मण न क्षत्रिय आदि हूं; न स्थूल हूं, न कृश हूं, किन्तु शुद्धचिद्रूप हूं, । ५. ॐ ह्रीं द्विजाद्विजविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
चैतन्यकुलस्वरूपोऽहम् । जड़ चेतन का भेद वास्तविक जान रहा ज्ञानी । पर से प्रथक जानता निज को वही भेदज्ञानी ॥ मैं न देह हूँ मैं न कर्म हूं मैं न मनुज हूं कृश । मैं तो द्वैत भाव से विरहित हूं अपने ही वश || जो चिद्रूप शुद्ध का ध्याता वह सुख पाता है ।
जो चिद्रूप शुद्ध ना ध्याता वह दुख - पाता है ॥५॥ | ॐ ह्रीं दशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।