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२०२ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी नवम अध्याय पूजन
मैं प्रत्यक्ष ज्ञान से शोभित हे प्रभु निज कल्याण करूं । युगपत दर्शी ज्ञान प्राप्त कर श्री केवली स्वपद वरूं ॥
(२२) मोहं तज्जातकार्याणि संगं हित्वा च निर्मलम् । शुद्धचिद्रूपसद्ध्यानं कुरु त्यक्त्वान्यसंगतिम् ॥२२॥
अर्थ- अत- जो मनुष्य शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति के अभिलाषी है उन्हें चाहिये कि वे मोह और उससे उत्पन्न हुए समस्त कार्यो का सर्वथा त्याग कर दें। उनकी और झांक कर भी न देखें। और समस्त पर द्रव्यों से ममता छोड़ केवल शुद्धचिद्रूप का ही मनन ध्यान और स्मरण करें।
२२. ॐ ह्रीं अन्यसंगतिरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः |
निष्परिग्रहोऽहम् । राधिका
जिनको चिद्रूप शुद्ध की है अभिलाषा । वे मोह जन्य भावों की तज दें पाशा ॥ उस ओर झांककर भी न कभी वे देखें । अपने चिद्रूप शुद्ध को प्रतिक्षण पेखें ॥ चिद्रूप शुद्ध ही शिव सुखकारी पाऊं ।
आनंद अतीन्द्रिय धारा ह्रदय सजाऊं ॥२२॥
ॐ ह्रीं भट्टारकज्ञानभूषणविरचित तत्त्वज्ञान तरंगिण्यां शुद्धचिद्रूपध्यानाय मोहत्याग प्रतिपादकनवमाध्याये शाश्वतबोधनिलयस्वरूपाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
महाअर्ध्य
छंद हे दीनबंधु
दुर्ध्यान मेरा पूर्णतया जब से हुआ नाश । तो आर्त्तरौद्र ध्यान का भी हो गया विनाश ॥ शुद्धात्मा की गंध आयी बड़ी दूर से । तो धर्म ध्यान का ह्रदय में हो गया निवास ॥