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________________ २०३ श्री तत्वज्ञान तरंगिणी विधान इन्द्रिय चक्षु बहिर्मुख होते अंतर्मुख हैं आगम चक्षु । सकल वाङमय की महिमा पा बन जाऊं प्रभु निर्मल चक्षु॥ रत्नत्रय सहित परम संयमी हुआ प्रभो । तो धर्म ध्यान स्वर्ग सौख्य पद का हुआ वास ॥ फिर शुक्ल ध्यान ध्या के क्षपक श्रेणी चढ़ गया । तो मोह क्षीण गुणस्थान हुआ मेरे पास ॥ सर्वज्ञ दशा प्रगट हुई पूर्ण ज्ञान पा । तो ध्यान विलय हुआ मिला मुक्ति का प्रकाश || स्वध्यान फल मिला तो ध्यान पीछे रह गया । निज सिद्ध पुर में हो गया सदा सदा को वास ॥ चिद्रूप शुद्ध पाके हुआ गुण अनंतमय । संसार चक्र नष्ट हुआ नाश हुआ त्रास ॥ दोहा महाअर्घ्य अर्पण करूं पार्टू भव दुख कूप । परम शक्ति शाली प्रभो एक शुद्ध चिद्रूप ॥ ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय महाअर्घ्य नि. ॥ जयमाला वीरछंद धर्म कीर्ति पति क्षय कर डाला तुमने भव भव का संताप। परम पारिणामिक स्वभाव के ही अधिपति हो हे प्रभु आप॥ दर्शन ज्ञान त्रिवेणी के संगम हे प्रभु संयम सम्राट । समिति गुप्ति व्रत को कालिंदी पतित पावनी ह्रदय विराट॥ गुण अनंत के अलंकरण से सदा सुशोभित त्रिभुवन नाथ। भव जल राशि अगाध सुखाकर लिया आत्मा को ही साथ॥ प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं दि ध्वनि के अनुपम स्रोत । परम शुद्ध अध्यात्म न्याय से ह्रदय आपका ओतः प्रोत ||
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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